Friday, June 7, 2019

जगत का कारण

चेतनानधिष्ठितस्याचेतनस्य प्रवृत्त्यनुपपत्तेस्तन्निमित्तमीश्वरः ।

चेतन निरपेक्ष प्रकृति की प्रवृत्ति न होने से ईश्वर जगत् का निमित्त कारण है ।

प्रत्येक कार्य के कारण जड़ और चेतन दो भागों में विभाजित रहते हैं । केवल जड़ उपादान-तत्त्व से चेतना की प्रेरणा के बिना जगत् की रचना नहीं हो सकती ।

किसी कार्यविशेष के लिए की जानेवाली विशिष्ट क्रिया का नाम 'प्रवृत्ति' है जड़तत्त्व में ऐसी क्रिया चेतन-सम्बन्ध से हो पाती है , स्वतः नहीं । इसीलिए जड़तत्त्वों से निर्मित मृत शरीर में स्वतः प्रवृत्ति नहीं देखी जाती । चेतन आत्मा यह विचार करता है कि मुझे अमुक कार्य करना है । तब उसके लिए अपेक्षित सामग्री एकत्रकर उसके परिणाम के अनुकूल प्रवृत्ति ( क्रिया ) को उत्पन्न करता है । इस प्रकार अभिलषित कार्य सामने आ जाता है ।

जिन तत्त्वों‌ के संयोग-वियोग से सृष्टि की रचना हुई है वे सब अचेतन हैं । इसलिए वे स्वयं अपना विकास नहीं कर सकते । चेतन प्रेरणा के बिना प्रकृति स्वतः जगद्रूप में परिणत नहीं हो सकती ।

"सकर्त्तृकैव क्रिया" - इस न्याय के अनुसार कर्त्ता के बिना कोई क्रिया नहीं होती और न क्रियाजन्य किसी पदार्थ की रचना होती है ।

जिन पृथिवी आदि पदार्थों की संयोगविशेष से रचना होती है वे अनादि नहीं हो सकते । जो संयोग से बनता है उसका संयोग करनेवाला उससे भिन्न कोई दूसरा अवश्य होता है । घी , सूजी , चीनी आदि को पास-पास रख देने पर हलवा नहीं बन जाता ; चूना और नींबू को एकसाथ रख देने से रोली नहीं बन जाती । ; कागज़ , ब्रुश और रंग पास-पास रख देने से चित्र तैयार नहीं होता ; कागज़ , लेखनी और स्याही एकत्र रख देने से पुस्तक नहीं लिखी जाती । इसी प्रकार जड़ परमाणुओं‌ को ज्ञान और युक्ति से मिलाये बिना सृष्टि की रचना नहीं हो सकती ।

मकड़ी के देह से जाला बनता है , परन्तु तभी तक जबतक क्रिया का प्रेरक चेतन आत्मतत्त्व वहाँ बैठा है । मकड़ी का मृत शरीर जाला नहीं बना सकता , यद्यपि वे तत्त्व तब भी ज्यों-के-त्यों विद्यमान रहते हैं । ऐसे ही कारणरूप में विद्यमान जगत् चेतन की प्रेरणा के बिना जड़ उपादान-तत्त्व के कार्यरूप में परिणत नहीं हो सकता ।

लोक में चेतन मानव द्वारा की गयी रचनाओं में व्यवस्था व प्रयोजन प्रत्यक्ष देखा जाता है । कोई भी अचेतन पदार्थ बिना किसी बुद्धि-सम्पन्न की प्रेरणा के अपने अन्दर से ऐसे पदार्थ उत्पन्न नहीं कर सकता जो मनुष्य के प्रस्तुत उद्देश्यों की सिद्धि में सहायक हों ।

ऊँचे-ऊचें मकानों , प्रमोद उद्यानों , सुख-सुविधा के प्रसाधनों , नहरों , सड़कों आदि का निर्माण मेधावी कलाकारों के द्वारा ही सम्पन्न होता है जिनका उद्देश्य अनेकविध कष्टों को दूरकर सुख प्राप्त कराना है । अनुभव हमें बताता है कि मिट्टी भी भिन्न-भिन्न आकृतियाँ तभी धारण करती है जब कुम्हार इस कार्य में प्रवृत्त होता है । यह प्रयोजन व व्यवस्था केवल मानव-रचनाओं में ही नहीं अपितु तिर्यक् प्राणियों की रचनाओं में भी देखी जाती है । प्रसव से पूर्ण सामान्य चिड़ियाँ घोंसला बनाने में तत्पर देखी जाती हैं । बया जैसा छोटा-सा पक्षी अत्यन्त सुन्दर , कलात्मक तथा सुदृढ़ घोंसला बनाता है । व्यवस्था के साथ किसी विशेष प्रयोजन से रचना करना चेतन के द्वारा ही सम्भव है , जड़ पदार्थों में स्वतः ऐसी प्रवृत्ति नहीं हो सकती ।

इस संसार के सम्बन्ध में भी ठीक यही बात है । सृष्टि की रचना ज्ञानपूर्वक व्यवस्थामूलक है , आकस्मिक नहीं । जगत् के मूल उपादान जड़तत्त्व स्वयं व्यवस्थित जगत् की रचना नहीं कर सकते ।

लोक-लोकान्तरों की रचना में जो आश्चर्यजनक कौशल दीख पड़ता है वह किसी सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् चेतन तत्त्व की अपेक्षा रखता है । परोक्षरूप में मूल उपादान-तत्त्वों को सर्वत्र-सर्वदा प्रेरणा करनेवाला ब्रह्म ही इस जगत् का निमित्त कारण है ।

मुण्डकोपनिषद् में कहा है कि "पुमान् रेतः सिञ्चति योषितायां बह्वीः प्रजाः पुरुषात्सम्प्रसूताः" ( मु . २/१/५ ) -- परमात्मा प्रकृति में प्रेरणारूप रेतः सिंचन करता है और इस प्रकार पुरुष से समस्त प्रजा प्रसूत होती है । जगत्सर्ग के लिए ईक्षण  द्वारा प्रकृति में प्रेरणा देना ही रेतः सिंचन है ।

निमित्तकारण उपादान-तत्त्वों से नामरूप की सृष्टि करता हुआ स्वयं अविकारी एवं अपरिणामी रहता है । अपने बनाये पदार्थों पर अपनी बुद्धि , कौशल तथा सामर्थ्य की छाप छोड़कर वह उनसे अलग रहता है -- उनमें भागीदार नहीं होता । इसलिए उसे जानने और पाने के लिए प्रयास अपेक्षित है ।

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स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी कृत
"तत्त्वमसि अथवा अद्वैत मीमांसा"
( प्रथम अध्याय , सूत्र संख्या १३ )

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